लोकायुक्त की सीमाएं लोकपाल के कुछ प्रमुख मुद्दों पर संसद में बहस के दौरान बसपा सांसदों ने यह कहकर वाहवाही लूटने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त की व्यवस्था भी है और भ्रष्टाचार के मामलों पर उनकी सिफारिशों पर अमल भी किया जा रहा है, लेकिन गत दिवस राज्य के लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने जो कुछ कहा उससे सच्चाई सामने आ जाती है। लोकायुक्त के मुताबिक मजबूत कानून न होने के कारण वह भ्रष्टाचार की तमाम शिकायतों में चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। यह समझना कठिन है कि तकनीकी विद्यालय, विश्वविद्यालय, प्राविधिक शिक्षा विश्वविद्यालय, चिकित्सा विश्वविद्यालय, अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाएं लोकायुक्त के दायरे में क्यों नहीं हैं? सवाल यह भी है कि लोकायुक्त भ्रष्टाचार के मामलों में स्वत: संज्ञान क्यों नहीं ले सकते? यदि राज्य सरकार अपने इस दावे को सही सिद्ध करना चाहती है कि वह भ्रष्टाचार को सहन करने के लिए तैयार नहीं तो फिर उसे लोकायुक्त को वैसे अधिकार प्रदान करने में देर नहीं करनी चाहिए जैसे कुछ राज्यों और विशेष रूप से मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक में इस संस्था को दिए गए हैं। राज्य सरकार इससे भलीभांति अवगत है कि लोकायुक्त प्रशासन के पास न तो पर्याप्त संसाधन हैं और न ही अधिकार। इतना ही नहीं, तकनीकी जांच के लिए उसके पास तकनीकी अधिकारी भी नहीं हैं। यह निराशाजनक है कि समय-समय पर लोकायुक्तों की ओर से इस संदर्भ में राज्य सरकार का ध्यान आकृष्ट कराए जाने के बावजूद स्थिति जस की तस ही है। राज्य सरकार का यह भी दावा है कि बिहार और मध्य प्रदेश की तरह से उसने सेवा के अधिकार से संबंधित कानून को भी लागू कर दिया है, लेकिन सच्चाई कुछ और ही बयान करती है। यथार्थ यह है कि इस संदर्भ में जो व्यवस्था की गई है वह दिखावटी ही अधिक है। राज्य सरकार यह तर्क दे सकती है कि अब जब लोकपाल के अनुरूप लोकायुक्त के गठन के बारे में संसद की स्थाई समिति विचार कर रही है तब फिर उसे संबंधित कानून के निर्माण की प्रतीक्षा करनी चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह अन्य अनेक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए प्रभावी उपाय न करे
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